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मिरी आरज़ू के चराग़ पर कोई तब्सिरा भी करे तो क्याकभी जल उठा सर-ए-शाम से कभी बुझ गया सर-ए-शाम से
अज़ीज़ वारसी देहलवी
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मिरी आरज़ू के चराग़ पर कोई तब्सिरा भी करे तो क्याकभी जल उठा सर-ए-शाम से कभी बुझ गया सर-ए-शाम से
अज़ीज़ वारसी देहलवी
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अज़ीज़ वारसी देहलवी
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अ’ज़्म-ओ--इस्तिक़लाल है शर्त-ए-मुक़द्दम इशक मेंकोई जादः क्यूँ न हो इंसान उस पर जम रहे
कामिल शत्तारी
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मुर्शिद मक्का तालिब हाजी का’बा इ’श्क़ बड़ाया हूविच हुज़ूर सदा हर वेले करिए हज सवाया हू
सुल्तान बाहू
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आग लगी वो इशक की सर से मैं पाँव तक जलाफ़र्त-ए-ख़ुशी से दिल मिरा कहने लगा जो हो सो हो
अब्दुल हादी काविश
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एहसास के मय-ख़ाने में कहाँ अब फिक्र-ओ-नज़र की क़िंदीलेंआलाम की शिद्दत क्या कहिए कुछ याद रही कुछ भूल गए
साग़र सिद्दीक़ी
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अगर हम से ख़फ़ा होना है तो हो जाइए हज़रतहमारे बा’द फिर अंदाज़-ए-यज़्दाँ कौन देखेगा
अज़ीज़ वारसी देहलवी
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दीवानः शुद ज़ू इ’श्क़ हम नागह बर-आवर्द आतिशीशुद रख़्त-ए-शहरी सोख़त: ख़ाशाक-ए-ईं वीरानः हम